रवीश कुमार (एनडीटीवी), कहीं ये आपकी गुमनामी का अँधेरा तो नहीं !

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NDTV celebrated Screen Blackout in favour of JNU slogan shouters.

रवीश की जेएनयू मुद्दे पर ओछी देश विरोधी पत्रकारिता, वास्तव में, वे हिंदी की काबिलियत को अपने एडिटर–मालिकों के राजनैतिक भविष्य पर न्यौछावर कर रहे हैं. रवीश कुमार अपने ‘अँधेरे वाले’ प्राइम टाइम में दूसरों को आईना दिखाने की कोशिश में ये भूल गए कि वे अपने चहरे पर एक कालिख पोतने जा रहे हैं. मेरी प्रतिक्रिया -

यह पत्रकारिता के पश्चाताप से कहीं ज्यादा आपकी सिगरेट के धुएं का हताशाभरा अँधेरा था (ऐसा इसीलिए कि टीवी की लाइफ के आलावा आपको प्रत्यक्ष रूप से देखने की इच्छा के चलते एक-दो बार आपको पान की थडी पर सिगरेट के जरिये पत्रकारिता में बढ़ते दबाब को कम करते हुए पाया) इस अँधेरे के तले आप बेबसी में अपने एम्प्लॉयर की साख बचाने के लिए 'जो भी उपलब्ध है' के तमगे के अंतर्गत खालिस मुद्दे के इतर आँख चुराते नजर आये और समाज के स्वस्थ हालात को ख़राब करने के लिए मची इस वैचारिक ग़दर में निर्दोष देशभक्ति पर ही सवाल उठाकर दर्शक की मूक चेतना को टीवी की बीमारी का भय दिखाकर एक गूढ़ता में छोड़ने का प्रयास करते रहे, खैर...वह दूर है आप मैज़िनी से लेकर मालवीय की अंदर की छटपटाहट वाले इस देशप्रेम के मर्म समझ पाएं। वक्त मिले तो इस मैथिली शरण गुप्त जैसे कामिल की नज्म को भी दिल पर हाथ रख सुन लेना चाहिए, बड़ा सुकून मिलेगा-

आपकी बेशर्मी तब सीमा और भी लाँघ गयी जब आपके प्रधान संपादक विक्रम चंद्रा आपके प्रतिस्पधी चैनल पर चले रहे प्रोग्राम में पूर्वसैनिक का दर्द झलकने पर ट्वीट कर ड्रामा करार देते हैं.

जो भरा नहीं भावों से,

जिसमें बहती रसधार नहीं।

वह हृदय नहीं पत्थर है,

जिसमें स्वदेस के लिए प्यार नहीं।

आप बार बार दर्शक को ड्रॉइंग रूम में अंधेरे होने,  सिग्नल ठीक है, आपके टीवी को कुछ नहीं हुआ, आदि की तरदीद में सुनाते रहे और 'देशद्रोह के आरोपो को कोर्ट तय करेगा और यह अभी हुआ ही नहीं है' तर्क प्रस्तुत करते रहे लेकिन आपके द्वारा एकबारगी एनडीटीवी के उस यात्राकाल को भी बिना बैचैन हुए चिंतन कर लिया जाता जो वर्षों से सत्ता के निकट रहकर मलाई खाने की प्रणव रॉय की स्वार्थी मेहनत से इसको खड़ा करने में लगे हुए हैं और जिसके बलबूते पर आपकी कवितावली शायराना नैरेशन वाली पत्रकारिता आपको एक रोजगार मुहैय्या करा रही है। मैं यह नहीं कहता कि आपके इस रोजगार के मानदण्ड कितने खरें हैं और कितने नहीं लेकिन आपसे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखने वाले एंकरों की जमात आप जिन्हें आप राजनैतिक दलों की पत्रकारिता करने के लिए आरोपी ठहराते हैं और उनके दामन को तो आप कटघरे में रखते हैं लेकिन आपके समूह की अंग्रेजी की पत्रकार बरखा दत्ता जो आजकल अपने अहम् पर चोट खाए निम्नतम स्तर की पत्रकारिता में लगी हुई हैं, उन पर लगे नीरा राडिया टेप कांड में भ्रष्टाचार के आरोपों के समय में आप पत्रकारिता के मानकों के लिए उठ खड़े नहीं होते हैं.

मारो –मारो, काटो –काटो, इसे खींचकर लाओ की ये आवाज़ आपकी सुनाई दे गयीं लेकिन देश की बर्बादी के नारों की आवाज़ और जवानों  की शहादत को झेल रहे परिवारों की बिलखने की आवाज़ आपको सुनाई नहीं पड़ी. आपकी बेशर्मी तब सीमा और भी लाँघ गयी जब आपके प्रधान संपादक विक्रम चंद्रा आपके प्रतिस्पधी चैनल पर चले रहे प्रोग्राम में पूर्वसैनिक का दर्द झलकने पर ट्वीट कर ड्रामा करार देते हैं.

पत्रकारिता की इस काले कालखंड को जिसके लिए आप बार बार परिवर्तन की स्पर्धा में रत हैं लेकिन ये बदलाव जहाँ आपका अपना एनडीटीवी तमाम तरीके की आर्थिक हेराफेरी में लिप्त है, के बिना संभव होगा? नहीं हो सकता क्यूंकि आपक काम अंत अंत तक पूछ कर एक वृत्तमार्ग से वहीँ लाकर खड़ा कर देने का है जिसके केंद्र में फिलहाल आपने देशभक्ति की परिभाषा को बैठा दिया है, लेकिन इसके पार्श्व में आप विरोधियों तंज कसने का रास्ता जरूर तलाश रहे हैं कि आप कौन होते हैं हमें देशभक्ति सिखाने वाले ? मेरी  देशभक्ति खाकी निक्कर की बेल्ट से नहीं बँधी है (जिस पर आप हर वन्देमातरम् का नारा लगाने वाले को गुंडई से नवाज देते हैं ).

अभी काफी है, जबाब की अपेक्षा नहीं रखता हूँ, लिखा बिना किसी कुंठा से है, लेकिन इस विश्वास से जरूर कहीं आपका हाथ ब्लॉक बटन नहीं दब जाये, वैसे तो आपका ब्लॉक करने का शौक पुराना है।

Nishant Sharma
Writer-Activist, Crusader for Media Regulation, Anti-Corruption.
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