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बीइंग डिफरेंट : वन और रेगिस्तान की सभ्यताएँ

दुनिया की संस्कृतियों और सभ्यताओं पर एक झलक डालने पर पता चलता है कि संस्कृतियों को भूगोल और भूगोल से जुड़ी मानव प्रक्रियाओं ने कितनी गहराई से प्रभावित किया है।

Image credit: Lonely Planet
  • In Opinion
  • March 04,2017
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मैंने अपनी पुस्तक, ‘विभिन्नता: पश्चात्य सार्वभौमिकता को भारतीय चुनौती’, में चर्चा की है कि कैसे "अव्यवस्था" और "व्यवस्था" के बीच संतुलन एवं साम्यावस्था लाने का एक निरंतर प्रयास (न कि अव्यवस्था का संपूर्ण उन्मूलन) भारतीय दर्शन, कला, पाक-प्रणाली, संगीत एवं काम-विद्या को व्यापक करता है, भारतीय संस्कृति एवं पाश्चात्य संस्कृति के बीच भेद प्रकाशित करता है, और पाश्चात्य पवित्र साहित्य के निरपेक्षवादी सिद्धांत के विचार से हमें बचाता है, जो दो ध्रुवों के बीच की एक ऐसी लड़ाई होती है जिसमें केवल एक पक्ष जीत सकता है, अर्थात केवल व्यवस्था की जीत हो सकती है। भारतीय संस्कृति और धर्म में मौलिक स्थान रखने वाली इस सदा से हो रही पुनर्व्यवस्था में गतिशीलता और रचनात्मकता को विशेषाधिकार प्रदान किया गया है, और भारतीय जीवन एवं सांस्कृतिक कलाकृतियों में जो विविधता है, वह इसी का परिणाम है।

इस पुस्तक में मुख्य रूप से अव्यवस्था और व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण में मौजूद इस अंतर की चर्चा विस्तार से की गई है। यह विचारणीय है कि भारतीय धार्मिक कल्पना ने इतनी स्पष्टता से विविधता और बहुलता के भाव को कैसे गले लगा लिया, जबकि दूसरों ने समान हद तक इसे नहीं अपनाया। यद्यपि सभी सभ्यताओं ने हमारे अस्तित्व से जुड़े कुछ सवालों के जवाब देने की कोशिश की है, जैसे, हम कौन हैं, हम यहाँ क्या कर रहे हैं, प्रकृति और ब्रह्मांड का स्वरूप क्या है आदि, तब इन सवालों के भारतीय उत्तर क्यों इतने स्पष्ट रूप से उनके इब्राहिमी अनुरूपों से अलग हैं?

श्री अरविंद हमें इसका एक कारण बताते हैं। धार्मिक परंपराओं में एकता एक अखंड तत्व के भाव पर आधारित है, और "विघटन एवं अव्यवस्था में पतन" के भय के बिना अपार बहुलता हो सकती है। उनका सुझाव है कि वन अपनी वनस्पति की समृद्धि और प्रचुरता द्वारा भारत के आध्यात्मिक दृष्टिकोण के लिए प्रेरणा के साथ-साथ रूपक भी है। दुनिया की संस्कृतियों  और सभ्यताओं पर एक झलक डालने पर पता चलता है कि संस्कृतियों को भूगोल और भूगोल से जुड़ी मानव प्रक्रियाओं ने कितनी गहराई से प्रभावित किया है। तो ऐसा जरूर हो सकता है कि उपमहाद्वीप, जो कभी उष्णकटिबंधीय वनों से भरपूर था, की भौतिक विशेषताओं एवं लक्षणों ने भी (यानी वनों ने भी) उपमहाद्वीप के गहरे आध्यात्मिक मूल्यों के विकास में योगदान दिया हो, और यही वजह हो कि रेगिस्तानों में पैदा हुए इब्राहिमी धर्मों के मूल्य हमारे मूल्यों के इतने विपरीत हैं।

भारत में वन हमेशा उपकारशीलता का प्रतीक रहा है – जो गर्मी से शरण देता है और आध्यात्मिक लक्ष्यों का पीछा करने के लिए सांसारिक संबंधों का त्याग करते समय जीवित रहने की मूलभूत आवश्यकताओं की चिंता से साधक को मुक्त कर देता है। (धर्म परंपरा में व्यक्तियों के जीवन के अंतिम चरण से पहले के चरण को "वानप्रस्थ आश्रम" यों ही नहीं कहा जाता।) वन हजारों परस्पर निर्भर जीव-जंतुओं का समर्थन करता है, और उनमें जटिल जीव-वैज्ञानिक परिवर्तन और संवृद्धि होती रहती है। वनों में निवास करने वाले जीव अनुकूलन में प्रवीण होते हैं। वे आसानी से नए रूपों में बदल जाते हैं या अपने आपको दूसरे रूपों में विलीन कर लेते हैं। वन को मेजबानी करना पसंद है - नए जीवन के रूप उसमें आते रहते हैं और मूल निवासी के रूप में पुनर्वासित होते जाते हैं। वन निरंतर विकसित होता रहता है और कभी भी विकास और वृद्धि की उसकी चेष्टा विराम की अवस्था को नहीं पहुँचती।

भारतीय विचार इसी के अनुरूप अनेकता, अनुकूलन, परस्पर निर्भरता और विकास का समर्थन करता है। विविधता स्वाभाविक, सामान्य और वांछनीय है, वास्तव में वह भगवान की अंतर्वर्तिता की अभिव्यक्ति है। जिस तरह वन में अनगिनत जीव-जंतु और उनके बीच होने वाली प्रक्रियाएँ होती हैं, वैसे ही धार्मिक साधना के अनंत तरीके हैं, जिनमें से एक भगवान के साथ सीधा संवाद स्थापित कर लेना भी है। शास्त्रों, संस्कारों, देवी-देवताओं, त्योहारों और परंपराओं की अधिकता को "अव्यवस्था" के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि समरसता के साथ परस्पर गुँथी हुई एक प्रणाली के रूप में देखा जाता है, जो खुद को समय और स्थान की आवश्यकता के अनुसार पुनर्विन्यस्त कर सकती है। जीवन-प्रद वन और प्रकृति मनुष्य द्वारा शोषित किए जाने के लिए नहीं बने हैं (जैसा कि इब्राहिमी धर्मों में माना गया है), वरन वे उसी विश्व-व्यवस्था के सदस्य हैं, जिसका आदमी भी एक सदस्य है। श्री अरविंद भारतीय मनीषा में विद्यमान इस पूर्वानुकूलता पर विशेष जोर देते हैं जिसमें अनंत हमेशा पहलुओं की अंतहीन विविधता में ही व्यक्त होता है और पश्चिम की धार्मिक मानसिकता से विषमता दिखाते हैं जिसमें सभी मानव जाति के लिए एक मजहब, एक धर्म-मत समुच्चय, एक पंथ, समारोहों की एक प्रणाली, प्रतिबंधों और हिदायतों की एक सरणी, एक गिरजाघरीय अध्यादेश जैसे विचारों को विशेष अधिकार दिया गया है।

'विभिन्नता' पुस्तक में, मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि संभवतः जिस तरह वन ने धार्मिक सोच को प्रेरित किया है और उसे आकार दिया है, उसी तरह रेगिस्तान ने भी, जो मध्य-पूर्व का प्रमुख भू-परिदृश्य है, जिसमें इब्राहिमी धर्म पैदा हुए, इब्राहिमी मजहबों के लोकाचार पर अपनी छाप छोड़ी है। रेगिस्तान प्रतिकूल स्थान हो सकते हैं, और वे ऐसी जगहों में से नहीं हैं जहाँ स्थायी रूप में आसानी से बसना या जीवन की विविधता पर अचंभा करना मुमकिन हो। रेगिस्तान की विशाल शून्यता और अद्वितीय सौंदर्य सत्ता के प्रति श्रद्धा और विनम्रता पैदा करते हैं, लेकिन उसके साथ-साथ डर भी। रेगिस्तान आमतौर पर विकटता, जीवन की कमी, कठोर माहौल और खतरे का संकेत करता है । रेगिस्तान में आमतौर पर कम प्रकार के जीवन और कम जैविक-बहुलता होती है। रेगिस्तान में रहने वाले लोग अपनी कठोर परिस्थितियों से उभरने के लिए ऊपर स्थित एक भगवान की ओर मुड़ते हैं। इब्राहिमी मजहबों का लोकाचार खौफ और भय की इसी भावना पर बनाया गया है। प्रकृति सहायक नहीं बल्कि अति भयंकर है - एक दुश्मन जिसे पालतू बनाना, सभ्य बनाना और नियंत्रित करना जरूरी है। परमात्मा एक वात्सल्यपूर्ण माँ कम, और कठोर और गुस्सैल पिता ज्यादा मालूम होते हैं। रेगिस्तान अपनी जलवायु की तरह मजहबी अनुभव की चरमपंथिता की ओर झुकाव पैदा करता है। भगवान सख्त और अपरिवर्तनीय नियम के द्वारा आदमी को बचाता है, उदाहरण के लिए इब्राहिमी मजहबों के दस हुक्मनामे। मनुष्य की आज्ञाकारिता के लिए वह उस पर कृपा और दया करता है, लेकिन बदले में गहरे पश्चाताप और प्रायश्चित की उम्मीद भी करता है। जो उसकी आज्ञा का पालन न करें उन्हें निर्ममता के साथ दंडित किया जाता है, और अपने आपको साबित करने के लिए केवल एक ही जीवन है, और पुनर्जन्म के माध्यम से किसी को भी कोई दूसरा मौका नहीं मिलता है।

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